त्रिवेणी ......... एक कोशिश

घर के पीछे वाले कमरे में जहाँ से एक पेड़ झांकता था

वहां चिडियों ने घोसला बनाया है,
पर घर के सभी कमरे खाली हैं।

बहुत कोशिश की पर कुछ साफ़ नही है

लगता है अब ये चश्मा ठीक नही लगता,
इस शहर में तो सभी पहचान वाले रहते थे

कभी मन उदास हो तो घूमने निकल जाता था

शाम होते ही सब ठीक और वापस अपने घर लौट आता था,
आज इनमे से एक भी मेरा घर नही है।


तुम मुझे छोड़ने बस स्टैंड तक आया करती थी

कुछ ख़ास नही बस चंद लम्हात के लिए,
अब शायद धुप पहले से तेज होने लगी है

कभी मिलने आ जाया करो, अच्छा लगता है...

एक अरसा हो गया जब सूरज आखरी बार इस कमरे में झाँकने आया था
अब तो अँधेरा पूरी तरह से मकम्मल हो गया है
रात और दिन का अब पता ही नही चलता.
ना कोई सुनहरी धुप में बाल सुखाता है
और न ही रात की तारीकी में कोई अनजानी शक्लें बनाता है..
किताबों पे धूल की मोती परत जमा हो चुकी है
जैसे सदियों से किसी ने उन की जिल्द भी न खोली हो.
एक डाइरी है जिसे मै हमेशा अपने साथ ही रखता हूँ
जिस पर कभी कुछ लिख लेता हूँ,
कभी कुछ आड़ी टेढी लकीरें खीच कर एक झोपडे की शक्ल देने की कोशिस करता हूँ.
मगर अफ़सोस इस डाइरी के सभी पन्ने खाली हैं
दिन भर जितनी भी जुगत करता हूँ,
रात को न जाने कहाँ से पानी की कुछ बुँदे आ जाती हैं
और सब कुछ पहले जैसा कोरा हो जाता है.
मैंने तुम्हारे जाने के बाद एक बोंसाइ पेड़ लगाया था
दो सालों में ही काफी बड़ा हो गया है
कभी मिलने आ जाया करो, अच्छा लगता है