चाँद

आज बीती रात मैंने चाँद से बातें करी
वो बेचारा कुछ थका सा पीतिमा धारण किए
अपने बीते वक्त की यूँ जीवनी कहने लगा...
"मै रूप का उपमेय अदभुत कांटी का ही रूप हूँ
नेह मेरा शील मै शत-यौवना-अनुरूप हूँ
मै रात्रि का हूँ सहचरी और दिवस से अनुरिक्त हूँ
मै पृथ्वी का प्रेमी पुराना और प्रेम से ही सिक्त हूँ....
तुम मेरी स्थिति को समझोगे मुझे अनुमान है
इस मेरी प्रियसी धारा को निज रूप पर अभिमान है |
मै रसिक इस मधुमही के दिन रात चक्कर काटता,
पर क्या करूँ ये अपनी थिरकन में ही अतिशय व्यस्त है ..
इसलिए मै दूर से ही इस न्रित्यांगना को ताकता
तुम तिमिर में सूर्य से हँसते मेरे कवि मित्र हो
काव्य में अति निपुण हो वाणी के विश्वामित्र हो
तुम ही क्यूँ ना इस धरा से स्थिति मेरी कह दो सही
और यह भी कहना शक्ति मुझमे अब ना आने की रही |
वो अगर चाहे तो मै इस रात्रि का संग छोड़ दूँ,
या कहे तो तेज रूपी सूर्य का रथ मोड़ दूँ ....."||
मैंने स्नेह धरा से चाँद का सारा संदेसा कह दिया
और दूर से ही चाँद को आश्वस्ति पत्रक पढ़ दिया
धरा ने भी मूक भाषा में अपनी सहमती व्यक्त की
....पर अचानक वह विहंगम सी खड़ी हो मुझसे यूँ कहने लगी
"मै धरा स्नेह ममता की सदा धरित्र हूँ
मै जननी हूँ कोटिक जनों की पर भावना से रिक्त हूँ
वो मुझे अब भूल जाए ये सदा अनुकूल है
हम एक होंगे इस जनम में ये उसकी महती भूल है "|||

हर रोज़ तमाशा

हर रोज़ तमाशा नया बनाता हूँ
झाड़ पोंछ कर बड़े करीने से,
अपने ज़ख्मों की तस्वीर ख़ुद सजाता हूँ |
उससे मिलना ही मेरा खाब हुआ करता था
बस यही सोच कर अब नींद से घबराता हूँ |

हर रोज़ तमाशा......................
लहरें हर सुबह किनारे पे ले आती हैं
मै हर शाम समंदर में समां जाता हूँ |

हर रोज़ तमाशा......................
अब शराबों में भी वो बात नही है यारों
बोतलें झूमती हैं और मै चुपचाप मुस्कुराता हूँ |

हर रोज़ तमाशा......................
मै कहीं भूल न जाऊँ तुम्हे इस रौनक में
अपने ज़ख्मों पे मै नश्तर खुदही चलता हूँ |

हर रोज़ तमाशा......................
कोई फ़िर से न देखे मेरी बारीकियों को
मै कफ़न ओढ़ कर चुप-चाप ही सो जाता हूँ ||

पिंजर

सुबह - सुबह ओस की बूंदों सी दो बूंदें मेरी हथेली पे गिरी
आँख उठा कर देखा तो नज़र कुछ नही आया
बस एक रुंधे गले से सिसकियों की आवाज़ सुनाई दी
जाने अनजाने में कुछ टूट गया था मुझसे या ये मेरा वक्त था,
जो साथ चलते चलते रूठ गया था मुझसे |
कुछ परिंदे थे जो बेखौफ जा रहे थे कहीं
और एक दरख्त था जो धुप से लड़ते लड़ते सुख गया था कहीं |
अचानक मेरी नज़र उस दरख्त की बेजान टहनियों पे पड़ी
अपना सा जिस्म और अपनी सी सूरत नज़र आई
पास जाने से घबराता था इस लिए चुप-चाप लौट आया हूँ
मै यहाँ महफूज़ हूँ .......
अपने वजूद का पिंजर उन टहनियों पर ही लटकता छोड़ आया हूँ ||

दो बूढी सी आँखें...

ढलते सूरज की लाली में सूना सा साहिल का मंज़र
चट्टानों की खामोशी को भेद रहा उद्विग्न समंदर
...दूर किसी झोपडी में दो बूढी सी आँखें
अपने ढलते सूरज को यूँ देख रही हैं
अपनी लाचारी के आगे दोनों घुटने टेक रही हैं |
"मेरे भीतर भी ऐसा लहरों का उत्साह भरा था...."
अपने बीते वक्त को जैसे चलते फिरते देख रही हैं |
दोनों हाथों का पौरुष की धरती को सौ बार कंपा दे
उन हाथों को रगड़ रगड़ कर अपना कम्पन रोक रही हैं |
हर बीता पल इन आंखों का एक सपना बन जाता
हर जीवित पल में जैसे वो फ़िर से मर जाता |
हर ढलते सूरज में ये ख़ुद को समझती हैं
थक कर आने वाले कल के खाबों में सो जाती हैं |
"शायद कल फ़िर से सब वैसा हो जाए ....
उगते सूरज की लाली शायद फ़िर से मुझ पर छा जाए.." ||