Apni maayusio.n ka karz yuu.n chukata huu.n
Ab mai har baat pe muskurata huu.n..
Tamannao.n ne bahkaayaa bahut tha
khilaune de ke tanha dil ko mai bahlata huu.n
Apni maayusio.n ka............
Hua kare mere dushman ye zamaane wale
Vo mere dost the is baat se ghabrata huu.n
Apni maayusio.n ka............
Meri si shakl liye firta hai kaatil mera
Mai yahan uske gunaho ki saza pata huu.n
Apni maayusio.n ka............
Udaan - by Amitabh Bhattacharya
Chhoti-chhoti chhitrayi yaadein
Bichhi hui hain lamhon ki lawn par
Nange pair unpar chalte-chalte
Itni door chale aaye
Ki ab bhool gaye hain ki
Joote kahan utaare the.......
Aedi komal thi, jab aaye the.
Thodi si naazuk hai abhi bhi.
Aur nazuk hi rahegi
In khatti-meethi yaadon ki shararat
Jab tak inhe gudgudati rahe.
Sach, bhool gaye hain
Ki joote kahan utaare the.
Par lagta hai,
Ab unki zaroorat nahin.
Bichhi hui hain lamhon ki lawn par
Nange pair unpar chalte-chalte
Itni door chale aaye
Ki ab bhool gaye hain ki
Joote kahan utaare the.......
Aedi komal thi, jab aaye the.
Thodi si naazuk hai abhi bhi.
Aur nazuk hi rahegi
In khatti-meethi yaadon ki shararat
Jab tak inhe gudgudati rahe.
Sach, bhool gaye hain
Ki joote kahan utaare the.
Par lagta hai,
Ab unki zaroorat nahin.
Hatheli Saamne rakhna, ek behad hi najuk Nazm thi...abhi us Nazm ka ek aur rukh pesh kar raha hun. Ummed karta hun pasand aayegi:
Hatheli Saamne rakhna
Duvaon ki vaja rakhna
Koi mannat adhuri ho
Samajh lena ki vo tha mai
Kabhi beja akela sa
Nigahon se dhakela sa
koi aansu gire lab par
Samajh lena ke vo tha mai
Koi bejaan sa manzar
koi budha akela sa
Andheron se kare baaten
samajh lena ki vo tha mai
Kabhi haalaat se lad kar
kabhi jajbaat se badh kar
tum khud ko bhul jao to
Samajh lena ki vo tha mai
Koi anchaha sa chehra
mile har roj khabbon me
ke fir dil doob jaye to
samajh lena ki vo tha mai
Kabhi haalat hon aise
Tum mujhko bhulna chaho
Kahin taara koi tute
Samajh lena ki vo tha mai...
Hatheli Saamne rakhna
Duvaon ki vaja rakhna
Koi mannat adhuri ho
Samajh lena ki vo tha mai
Kabhi beja akela sa
Nigahon se dhakela sa
koi aansu gire lab par
Samajh lena ke vo tha mai
Koi bejaan sa manzar
koi budha akela sa
Andheron se kare baaten
samajh lena ki vo tha mai
Kabhi haalaat se lad kar
kabhi jajbaat se badh kar
tum khud ko bhul jao to
Samajh lena ki vo tha mai
Koi anchaha sa chehra
mile har roj khabbon me
ke fir dil doob jaye to
samajh lena ki vo tha mai
Kabhi haalat hon aise
Tum mujhko bhulna chaho
Kahin taara koi tute
Samajh lena ki vo tha mai...
चाँद
आज बीती रात मैंने चाँद से बातें करी
वो बेचारा कुछ थका सा पीतिमा धारण किए
अपने बीते वक्त की यूँ जीवनी कहने लगा...
"मै रूप का उपमेय अदभुत कांटी का ही रूप हूँ
नेह मेरा शील मै शत-यौवना-अनुरूप हूँ
मै रात्रि का हूँ सहचरी और दिवस से अनुरिक्त हूँ
मै पृथ्वी का प्रेमी पुराना और प्रेम से ही सिक्त हूँ....
तुम मेरी स्थिति को समझोगे मुझे अनुमान है
इस मेरी प्रियसी धारा को निज रूप पर अभिमान है |
मै रसिक इस मधुमही के दिन रात चक्कर काटता,
पर क्या करूँ ये अपनी थिरकन में ही अतिशय व्यस्त है ..
इसलिए मै दूर से ही इस न्रित्यांगना को ताकता
तुम तिमिर में सूर्य से हँसते मेरे कवि मित्र हो
काव्य में अति निपुण हो वाणी के विश्वामित्र हो
तुम ही क्यूँ ना इस धरा से स्थिति मेरी कह दो सही
और यह भी कहना शक्ति मुझमे अब ना आने की रही |
वो अगर चाहे तो मै इस रात्रि का संग छोड़ दूँ,
या कहे तो तेज रूपी सूर्य का रथ मोड़ दूँ ....."||
मैंने स्नेह धरा से चाँद का सारा संदेसा कह दिया
और दूर से ही चाँद को आश्वस्ति पत्रक पढ़ दिया
धरा ने भी मूक भाषा में अपनी सहमती व्यक्त की
....पर अचानक वह विहंगम सी खड़ी हो मुझसे यूँ कहने लगी
"मै धरा स्नेह ममता की सदा धरित्र हूँ
मै जननी हूँ कोटिक जनों की पर भावना से रिक्त हूँ
वो मुझे अब भूल जाए ये सदा अनुकूल है
हम एक होंगे इस जनम में ये उसकी महती भूल है "|||
वो बेचारा कुछ थका सा पीतिमा धारण किए
अपने बीते वक्त की यूँ जीवनी कहने लगा...
"मै रूप का उपमेय अदभुत कांटी का ही रूप हूँ
नेह मेरा शील मै शत-यौवना-अनुरूप हूँ
मै रात्रि का हूँ सहचरी और दिवस से अनुरिक्त हूँ
मै पृथ्वी का प्रेमी पुराना और प्रेम से ही सिक्त हूँ....
तुम मेरी स्थिति को समझोगे मुझे अनुमान है
इस मेरी प्रियसी धारा को निज रूप पर अभिमान है |
मै रसिक इस मधुमही के दिन रात चक्कर काटता,
पर क्या करूँ ये अपनी थिरकन में ही अतिशय व्यस्त है ..
इसलिए मै दूर से ही इस न्रित्यांगना को ताकता
तुम तिमिर में सूर्य से हँसते मेरे कवि मित्र हो
काव्य में अति निपुण हो वाणी के विश्वामित्र हो
तुम ही क्यूँ ना इस धरा से स्थिति मेरी कह दो सही
और यह भी कहना शक्ति मुझमे अब ना आने की रही |
वो अगर चाहे तो मै इस रात्रि का संग छोड़ दूँ,
या कहे तो तेज रूपी सूर्य का रथ मोड़ दूँ ....."||
मैंने स्नेह धरा से चाँद का सारा संदेसा कह दिया
और दूर से ही चाँद को आश्वस्ति पत्रक पढ़ दिया
धरा ने भी मूक भाषा में अपनी सहमती व्यक्त की
....पर अचानक वह विहंगम सी खड़ी हो मुझसे यूँ कहने लगी
"मै धरा स्नेह ममता की सदा धरित्र हूँ
मै जननी हूँ कोटिक जनों की पर भावना से रिक्त हूँ
वो मुझे अब भूल जाए ये सदा अनुकूल है
हम एक होंगे इस जनम में ये उसकी महती भूल है "|||
हर रोज़ तमाशा
हर रोज़ तमाशा नया बनाता हूँ
झाड़ पोंछ कर बड़े करीने से,
अपने ज़ख्मों की तस्वीर ख़ुद सजाता हूँ |
उससे मिलना ही मेरा खाब हुआ करता था
बस यही सोच कर अब नींद से घबराता हूँ |
हर रोज़ तमाशा......................
लहरें हर सुबह किनारे पे ले आती हैं
मै हर शाम समंदर में समां जाता हूँ |
हर रोज़ तमाशा......................
अब शराबों में भी वो बात नही है यारों
बोतलें झूमती हैं और मै चुपचाप मुस्कुराता हूँ |
हर रोज़ तमाशा......................
मै कहीं भूल न जाऊँ तुम्हे इस रौनक में
अपने ज़ख्मों पे मै नश्तर खुदही चलता हूँ |
हर रोज़ तमाशा......................
कोई फ़िर से न देखे मेरी बारीकियों को
मै कफ़न ओढ़ कर चुप-चाप ही सो जाता हूँ ||
झाड़ पोंछ कर बड़े करीने से,
अपने ज़ख्मों की तस्वीर ख़ुद सजाता हूँ |
उससे मिलना ही मेरा खाब हुआ करता था
बस यही सोच कर अब नींद से घबराता हूँ |
हर रोज़ तमाशा......................
लहरें हर सुबह किनारे पे ले आती हैं
मै हर शाम समंदर में समां जाता हूँ |
हर रोज़ तमाशा......................
अब शराबों में भी वो बात नही है यारों
बोतलें झूमती हैं और मै चुपचाप मुस्कुराता हूँ |
हर रोज़ तमाशा......................
मै कहीं भूल न जाऊँ तुम्हे इस रौनक में
अपने ज़ख्मों पे मै नश्तर खुदही चलता हूँ |
हर रोज़ तमाशा......................
कोई फ़िर से न देखे मेरी बारीकियों को
मै कफ़न ओढ़ कर चुप-चाप ही सो जाता हूँ ||
पिंजर
सुबह - सुबह ओस की बूंदों सी दो बूंदें मेरी हथेली पे गिरी
आँख उठा कर देखा तो नज़र कुछ नही आया
बस एक रुंधे गले से सिसकियों की आवाज़ सुनाई दी
जाने अनजाने में कुछ टूट गया था मुझसे या ये मेरा वक्त था,
जो साथ चलते चलते रूठ गया था मुझसे |
कुछ परिंदे थे जो बेखौफ जा रहे थे कहीं
और एक दरख्त था जो धुप से लड़ते लड़ते सुख गया था कहीं |
अचानक मेरी नज़र उस दरख्त की बेजान टहनियों पे पड़ी
अपना सा जिस्म और अपनी सी सूरत नज़र आई
पास जाने से घबराता था इस लिए चुप-चाप लौट आया हूँ
मै यहाँ महफूज़ हूँ .......
अपने वजूद का पिंजर उन टहनियों पर ही लटकता छोड़ आया हूँ ||
आँख उठा कर देखा तो नज़र कुछ नही आया
बस एक रुंधे गले से सिसकियों की आवाज़ सुनाई दी
जाने अनजाने में कुछ टूट गया था मुझसे या ये मेरा वक्त था,
जो साथ चलते चलते रूठ गया था मुझसे |
कुछ परिंदे थे जो बेखौफ जा रहे थे कहीं
और एक दरख्त था जो धुप से लड़ते लड़ते सुख गया था कहीं |
अचानक मेरी नज़र उस दरख्त की बेजान टहनियों पे पड़ी
अपना सा जिस्म और अपनी सी सूरत नज़र आई
पास जाने से घबराता था इस लिए चुप-चाप लौट आया हूँ
मै यहाँ महफूज़ हूँ .......
अपने वजूद का पिंजर उन टहनियों पर ही लटकता छोड़ आया हूँ ||
दो बूढी सी आँखें...
ढलते सूरज की लाली में सूना सा साहिल का मंज़र
चट्टानों की खामोशी को भेद रहा उद्विग्न समंदर
...दूर किसी झोपडी में दो बूढी सी आँखें
अपने ढलते सूरज को यूँ देख रही हैं
अपनी लाचारी के आगे दोनों घुटने टेक रही हैं |
"मेरे भीतर भी ऐसा लहरों का उत्साह भरा था...."
अपने बीते वक्त को जैसे चलते फिरते देख रही हैं |
दोनों हाथों का पौरुष की धरती को सौ बार कंपा दे
उन हाथों को रगड़ रगड़ कर अपना कम्पन रोक रही हैं |
हर बीता पल इन आंखों का एक सपना बन जाता
हर जीवित पल में जैसे वो फ़िर से मर जाता |
हर ढलते सूरज में ये ख़ुद को समझती हैं
थक कर आने वाले कल के खाबों में सो जाती हैं |
"शायद कल फ़िर से सब वैसा हो जाए ....
उगते सूरज की लाली शायद फ़िर से मुझ पर छा जाए.." ||
चट्टानों की खामोशी को भेद रहा उद्विग्न समंदर
...दूर किसी झोपडी में दो बूढी सी आँखें
अपने ढलते सूरज को यूँ देख रही हैं
अपनी लाचारी के आगे दोनों घुटने टेक रही हैं |
"मेरे भीतर भी ऐसा लहरों का उत्साह भरा था...."
अपने बीते वक्त को जैसे चलते फिरते देख रही हैं |
दोनों हाथों का पौरुष की धरती को सौ बार कंपा दे
उन हाथों को रगड़ रगड़ कर अपना कम्पन रोक रही हैं |
हर बीता पल इन आंखों का एक सपना बन जाता
हर जीवित पल में जैसे वो फ़िर से मर जाता |
हर ढलते सूरज में ये ख़ुद को समझती हैं
थक कर आने वाले कल के खाबों में सो जाती हैं |
"शायद कल फ़िर से सब वैसा हो जाए ....
उगते सूरज की लाली शायद फ़िर से मुझ पर छा जाए.." ||
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