ढलते सूरज की लाली में सूना सा साहिल का मंज़र
चट्टानों की खामोशी को भेद रहा उद्विग्न समंदर
...दूर किसी झोपडी में दो बूढी सी आँखें
अपने ढलते सूरज को यूँ देख रही हैं
अपनी लाचारी के आगे दोनों घुटने टेक रही हैं |
"मेरे भीतर भी ऐसा लहरों का उत्साह भरा था...."
अपने बीते वक्त को जैसे चलते फिरते देख रही हैं |
दोनों हाथों का पौरुष की धरती को सौ बार कंपा दे
उन हाथों को रगड़ रगड़ कर अपना कम्पन रोक रही हैं |
हर बीता पल इन आंखों का एक सपना बन जाता
हर जीवित पल में जैसे वो फ़िर से मर जाता |
हर ढलते सूरज में ये ख़ुद को समझती हैं
थक कर आने वाले कल के खाबों में सो जाती हैं |
"शायद कल फ़िर से सब वैसा हो जाए ....
उगते सूरज की लाली शायद फ़िर से मुझ पर छा जाए.." ||
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