हर रोज़ तमाशा

हर रोज़ तमाशा नया बनाता हूँ
झाड़ पोंछ कर बड़े करीने से,
अपने ज़ख्मों की तस्वीर ख़ुद सजाता हूँ |
उससे मिलना ही मेरा खाब हुआ करता था
बस यही सोच कर अब नींद से घबराता हूँ |

हर रोज़ तमाशा......................
लहरें हर सुबह किनारे पे ले आती हैं
मै हर शाम समंदर में समां जाता हूँ |

हर रोज़ तमाशा......................
अब शराबों में भी वो बात नही है यारों
बोतलें झूमती हैं और मै चुपचाप मुस्कुराता हूँ |

हर रोज़ तमाशा......................
मै कहीं भूल न जाऊँ तुम्हे इस रौनक में
अपने ज़ख्मों पे मै नश्तर खुदही चलता हूँ |

हर रोज़ तमाशा......................
कोई फ़िर से न देखे मेरी बारीकियों को
मै कफ़न ओढ़ कर चुप-चाप ही सो जाता हूँ ||

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