सुबह - सुबह ओस की बूंदों सी दो बूंदें मेरी हथेली पे गिरी
आँख उठा कर देखा तो नज़र कुछ नही आया
बस एक रुंधे गले से सिसकियों की आवाज़ सुनाई दी
जाने अनजाने में कुछ टूट गया था मुझसे या ये मेरा वक्त था,
जो साथ चलते चलते रूठ गया था मुझसे |
कुछ परिंदे थे जो बेखौफ जा रहे थे कहीं
और एक दरख्त था जो धुप से लड़ते लड़ते सुख गया था कहीं |
अचानक मेरी नज़र उस दरख्त की बेजान टहनियों पे पड़ी
अपना सा जिस्म और अपनी सी सूरत नज़र आई
पास जाने से घबराता था इस लिए चुप-चाप लौट आया हूँ
मै यहाँ महफूज़ हूँ .......
अपने वजूद का पिंजर उन टहनियों पर ही लटकता छोड़ आया हूँ ||
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